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एक कविता यूँ तो मैंने दशकों से चले आ रहे चुनावी परिदृश्य को मध्य नजर रख कर 2014 के आम चुनाव के पूर्व लिखी थी| परन्तु कभी प्रकशित न कर सका, काश, मुझे तब भी दैनिक जागरण के इतने विशाल एवं खुले मंच के बारे में मालूम होता | आज परिदृश्य बदल गया है लिहाजा कविता भी उतनी प्रासंगिक नहीं रही | आज फिर से चुनावी माहौल गरमा रहा है, कविता की प्रासंगिकता का दावा तो नहीं करता उम्मीद करता हूँ की ये कविता सुधि पाठकों को अन्दोलित् भी करेगी और गुदगुदाएगी भी |परस्तुत हैं मेरे कुछ विचार I कविता में (धृतराष्ट्र प्रतीक हैं सत्ता पक्ष के भीष्म पितामह वरिष्ट नागरिकों के, गुरु द्रोण व कृपाचार्य बुद्धिजीवी वर्ग एवं विदुर जी न्याए व्यवस्था के प्रतीक हैं)
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संसद में बिसात बिछी है
द्यूत क्रीड़ा खेल रहे हैं
नेताओं के पौ बाराह हैं
वोटर पीड़ा झेल रहे हैं
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धृतराष्ट्र हैं, द्रोण्ड़ भी हैं
कृपाचार्य हैं, विदुर जी,हैं
भीष्म पितामह, कर्ण
दुशासन, सभी हैं
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कौरव ही कौरव हैं सारे
दूजा कोई और नहीं है
आज भी इस महान भारत में
पांडवों का ठौर नहीं है
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अपने अपने शकुनि सब के
अपने अपने दुर्योधन हैं
किस का दुर्योधन कैसे जीते
शकुनि पासे फेंक रहे हैं
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पर पासों पर,
अंकों के बदले
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई
दलित ब्राह्मण स्वर्ण खुदा है
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किस किस के होंगे पौ बारह
कौन सकेगा इनको जीत
साम दाम भय भेद चलेगा
यही तो है दुनिया की रीत
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शक्ति का प्रयोग भी होगा
लाठी भी काम आयेगी
सर्व विदित है,
जब तक होगी हाथ में लाठी
भैंस कहाँ को जायेगी
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जो हारेगा उसे मिलेगा
केवल पांच बरस बनवास
जो जीतेगा वो भोगेगा
चार बरस और नौ माह
का अज्ञात वास
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हो सकता है एक से ज्यादा
दुर्योधन विजयी हो जाएँ
ऐसे में तो बहुत कठिन है
किसे युवराज बनाया जाये
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मनमानी उनकी फितरत है
मनमानी पर जो उतर आयें
इक दिन न सरकार चलेगी
कैसे इन्हें मनाया जाए
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कुछ न कुछ तो करना होगा
इनके तार मिलाने होंगें
जितने दुर्योधन जीतेंगें
उनसे भी ज्यादा, इंद्रप्रस्थ बनाने होंगे
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पांच बरस तक युद्ध चलेगा
पर घातक हथिआर न होंगें
जूते चप्पल कुर्सी मेज ही
योद्धा के श्रृंगार बनेंगें
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रोज किसी न किसी द्रोपती का
चीर उतारा जायेगा
कोई न कोई अभिमन्यु
हर दिन मारा जायेगा
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बे खौफ फिरेंगे कौरव पुत्र
पांडवों का कहीं पता न होगा
व्यस्त रहेंगे कृष्ण जी भी
चक्र सुदर्शन सोया होगा
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मैंने सुना है सूरदास भी
मन कि आँखों से लेते देख
पर आँखों वाले धृतराष्ट्र अब
मक्खी निगलेंगे आँखों से देख
बस मूक द्रष्टा बने रहेंगें
स्पॉट रहेगी माथे कि रेख
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अत्याचार का नंगा तांडव
होता रहेगा सरे बाजार
कृपाचार्य द्रोण्ड़ पितःम्ह
खुद को समझेंगे लाचार
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विदुर जी भी सिर धुन लेंगें
अपनी मुठियाँ लेंगें भींच
नीति शास्त्र की इक न चलेगी
कौन सुनेगा उनकी चीख
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पांच बरस क्यों युगों युगों तक
यूँ ही बिछी रहेगी बिसात
पराजित दुर्योधन डटे रहेंगें
जुआ चलेगा दिन और रात
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शोध करता अनवरत सोचेंगे
समिंकरण जो होंगे खास
हारे हुए दुर्योधन सोचेंगे
कैसे दे जीते हुए दुर्योधन को मात
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संसद में बिसात बिछी है
द्यूत क्रीड़ा खेल रहे हैं
नेताओं के पौ बाराह हैं
वोटर पीड़ा झेल रहे हैं
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भगवान दास मेहँदीरत्ता
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